प्राचीन काल की बात है एक गांव के निकट एक सिद्ध संत रहते थे। उनके पास बहुत से श्रद्धालु आते थे। आस पास के सभी गांवों में यह मान्यता थी की उनके स्पर्श से असाध्य रोग भी दूर हो जाते हैं। सो उनके पास अनेक रुग्ण श्रद्धालु आते रहते थे।
एक दिन एक युवक उनके पास आया और उसने कहा, मुझे मन का रोग है, मेरा चित्त अशांत और मन व्याकुल रहता है।आप जिस प्रकार सभी के रोग दूर करते हैं, उसी प्रकार मेरा रोग भी दूर कीजिये।
संत ने युवक की बातें सुन उससे कहा, मन का रोग तो केवल तुम स्वयं ही दूर कर सकते हो, इसके लिए तुम ईश्वर की शरण में जाओ। मैं तो केवल शारीरिक रोग दूर करने का माध्यम मात्र हूँ, मन के भावनात्मक रोग तो ईश्वर के हाथ में होते हैं, इसके लिए तुम उनका आश्रय लो, वे तुम्हें तुम्हारी भक्ति का फल अवश्य देंगें।
महामना प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्विनी आदि सत्ताईस कन्याओं का विवाह चन्द्रमा के साथ किया था। चन्द्रमा को स्वामी के रूप में पाकर वे दक्षकन्याएँ विशेष शोभा पाने लगीं तथा चन्द्रमा भी उन्हें पत्नी के रूप में पाकर निरन्तर सुशोभित होने लगे। उन सब पत्नियों में एकमात्र रोहिणी ही थी, जो चन्द्रमा को प्रिय थी। अन्य पत्नियाँ उनको कदापि प्रिय नहीं हुई। इससे दूसरी पत्नियों को बड़ा दुःख हुआ। वे सब अपने पिता की शरण में गयीं। वहाँ जाकर उन्होंने जो भी दुःख था, उसे पिता को निवेदन किया। यह सुनकर दक्ष भी दुःखी हो गये और चन्द्रमा के पास आकर शान्तिपूर्वक बोले। पर चन्द्रमा ने प्रबल भावी से विवश होकर उनकी बात नहीं मानी। वे रोहिणी में इतने आसक्त हो गये थे कि दूसरी किसी पत्नी का कभी आदर नहीं करते थे। इस बात को सुनकर दक्ष दुःखी होकर चन्द्रमा को उत्तम नीति से समझाने लगे। दक्ष ने कहा, ‘मैं अनेक बार तुमसे प्रार्थना कर चुका हूँ। फिर भी तुमने मेरी बात नहीं मानी। इसलिये आज श्राप देता हूँ कि तुम्हें क्षयरोग हो जाए’।
दक्ष के इतना कहते ही क्षणभर में चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त हो गये। उनके क्षीण होते ही सब ओर हाहाकार मच गया। सब देवता और ऋषि कहने लगे कि 'हाय! हाय! अब क्या करना चाहिये, चन्द्रमा कैसे ठीक होंगे?' दुःख में पड़कर वे सब लोग विह्वल हो गये। चन्द्रमा ने इन्द्र आदि सब देवताओं तथा ऋषियों को अपनी अवस्था सूचित की। तब आदि देवता तथा ऋषि, ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्माजी ने कहा- देवताओ! जो हुआ, सो हुआ। अब वह निश्चय ही पलट नहीं सकता। अत: उसके निवारण के लिये मैं तुम्हें एक उत्तम उपाय बताता हूँ।
चन्द्रमा, देवताओं के साथ प्रभास नामक शुभ क्षेत्र में जाएँ और वहाँ मृत्युंजय-मन्त्र का विधिपूर्वक अनुष्ठान करते हुए भगवान् शिव की आराधना करें। अपने सामने शिवलिंग की स्थापना करके वहाँ चन्द्र देव नित्य तपस्या करें। आज्ञा के अनुसार चन्द्रमा ने छ: महीने तक निरन्तर तपस्या की, मृत्युंजय-मन्त्र से भगवान् वृषभध्वज का पूजन किया। दस करोड़ मन्त्र का जप और ध्यान करते हुए चन्द्रमा वहाँ स्थिरचित्त होकर लगातार खड़े रहे। उन्हें तपस्या करते देख भगवान् शंकर प्रसन्न हो उनके सामने प्रकट हो गये और अपने भक्त चन्द्रमा से बोले। शंकरजी ने कहा- चन्द्र देव! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मन में जो अभीष्ट हो, वह माँगो! मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हें उत्तम वर प्रदान करूंगा। चन्द्रमा बोले- देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे लिये क्या असाध्य हो सकता है; तथापि प्रभो! शंकर! आप मेरे क्षय रोग का निवारण कीजिये।
मुझसे जो अपराध हुआ हो, उसे क्षमा कीजिये। शिवजी ने कहा- चन्द्र देव! एक पक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी कला क्षीण हो और दूसरे पक्ष में फिर वह निरन्तर बढ़ती रहे। चन्द्रमा ने भक्तिभाव से भगवान् शंकर की स्तुति की। देवताओं पर प्रसन्न हो उस क्षेत्र के माहात्म्य को बढ़ाने तथा चन्द्रमा के यश का विस्तार करने के लिये भगवान् शंकर उन्हीं के नाम पर वहाँ सोमेश्वर कहलाये और सोमनाथ के नाम से तीनों लोकों में विख्यात हुए।
एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक सन्यासी आया और राजा को भेंट के रूप में एक जंगली फल दिया। पहले तो राजा बहुत चकित हुए, परंतु फिर उन्होंने वह भेंट स्वीकार कर, पास बैठे मंत्री को दे दी। यह सिलसिला दस वर्ष तक चलता रहा।
एक दिन, प्रतिदिन की तरह, सन्यासी जंगली फल लेकर आया, किंतु इस बार राजा ने वह फल पास बैठे अपने पालतू बंदर को दे दिया। जैसे ही बंदर ने वह फल खाया, उसमें से एक अद्भुत हीरा निकला। यह देखकर राजा आश्चर्यचकित हो गए। जब राजा ने पिछले दस वर्षों से मिल रहे जंगली फलों को देखा, तो उन सभी के बीच अलौकिक हीरे चमक रहे थे।
राजा विक्रमादित्य ने सन्यासी से इसका रहस्य पूछा, तो संन्यासी ने उत्तर दिया कि होश न हो, तो जिंदगी ऐसे ही चूक जाती है। जिंदगी प्रतिदिन हमें ऐसे ही फल देती है, परंतु तुम जंगली समझ फेंकते चले जाते हो और हर फल के अंदर एक अद्भुत हीरा छिपा है जिसे देखने में तुम असमर्थ हो। परंतु अब तुम पीछे (भूतकाल) की तरफ मत जाओ अन्यथा फिर चूक जाओगे और आगे (भविष्य) की तरफ भी मत दौड़ो, वरना वर्तमान से रिश्ता छूट जायेगा।
वर्तमान में जीवन द्वारा प्रदत्त हीरों का आनंद लो।
एक बहुत बड़ा जादूगर था - हुदनी ! वह जादू की कला में निपुण था,उसे किसी भी प्रकार की जंजीरों में क्यों न कस दिया जाए, वह क्षण-भर में ही उसे तोड़कर बाहर आ जाता था। उस पर तरह-तरह के प्रयोग किये जाते, कभी उसे जंजीरों में बांधकर, डिब्बे में डालने के बाद, डिब्बे को ताला लगाकर नदी में फेंक दिया जाता, तो कभी उसे जंजीरों में बांधकर कारागार में कैद कर लिया जाता, परंतु तब भी वह कुछ ही मिनटों में बाहर आ जाता।
आध्यात्म तो जीवन से जुड़े कई रहस्यों से पर्दा उठा देता है और जिंदगी के कई भेद हमारे समक्ष खोल देता है। मनुष्य विभिन्न कलाओं का विकास कर यह समझता है कि उसने आध्यात्म को समझ लिया है परन्तु पानी पर चलना आध्यात्म नहीं है। आध्यात्म तो जीवन से जुड़े रहस्यों व स्वयं की आत्मा का अध्ययन करने का मार्ग सुनिश्चित करता है।
देश - विदेश के सभी कारागारों में उस पर प्रयोग किये गए, सभी पुलिसकर्मियों ने अपने- अपने देश में हुदनी को पराजित करने का प्रयास किया, फिर चाहे वो इंग्लैंड और अमेरिका हों या फ्रांस और जर्मनी, सभी ने बहुत प्रयास किया परंतु कोई भी हुदनी को न हरा सका। वह अधिकतम तीन मिनट में सारी जंजीर तोड़कर, सभी ताले खोल देता और सभी को आश्चर्यचकित कर देता।
पूरे विश्व में उसकी कला की सराहना की जाती थी, परंतु एक दिन इटली में, वह हार गया। उसे बाहर आने में तीन घंटे का समय लग गया और जब वह निकला तो उसकी स्थिति बहुत बुरी थी। उसके देह से पसीना बह रहा था, चिंता के कारण उसके मस्तिष्क की नसें फूल चुकी थी व आँखें भी लाल हो गयीं थी। बाहर आने के बाद, वह बहुत हांफ रहा था, तो लोगों ने उससे पूछा कि उसको यह जादू करने में इतना विलंब क्यों हुआ। तब उसने कहा कि उसके साथ विश्वासघात हुआ है, क्योंकि दरवाजे पर न ही कोई जंजीर थी और न ही कोई ताला, तो वह खोलता क्या ? अंत में जब वह अपने हर प्रयास के पश्चात पूरी तरह थक गया, तो दरवाजे की ओर गिर पड़ा, जिससे वह दरवाजा खुल गया।
उसके सभी प्रयास निष्फल साबित हुए क्योंकि वह जिस ताले की चाबी ढूंढ रहा था, वह ताला तो असल में था ही नहीं। मनुष्य भी जीवन पर्यन्त समस्याओं का निवारण ढूंढने में लगा रहता है। वह नहीं समझता की जीवन एक समस्या नहीं, रहस्य है और समाधान समस्या का होता है न की रहस्य का। मनुष्य का जीवन भी रहस्य की तरह है, वह चाहे कितना भी खोज ले, उसकी खोज कभी पूरी नही हो सकती। जिस प्रकार हुदनी उस ताले की चाबी ढूंढ रहा था, जो कभी था ही नहीं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी जीवन की समस्याओं का समाधान ढूंढता रहता है, जो हैं ही नहीं क्योंकि जीवन एक रहस्य हैं, अद्भुत रहस्य ! जिसे केवल जिया जा सकता है।
अष्टावक्र, विद्वान वेदपाठी एवं प्रकांड पंडित कहोड़ तथा ऋषि उद्यालक की पुत्री सुजाता की संतान थे। जब से वे अपनी मां के गर्भ में थे, तभी से उनके पिता उन्हें शास्त्रों का ज्ञान देते थे परंतु एक दिन अष्टावक्र ने गर्भ से ही अपने पिता को कहा कि असल में ज्ञान तो मनुष्य के भीतर ही है, शास्त्र तो केवल शब्दों का संग्रह मात्र हैं। यह सुन उनके पिता अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्हें शाप दिया कि जन्म से ही उनके आठ अंग टेढ़े होंगे। ठीक ऐसा ही हुआ और ऋषि कहोड़ की संतान जन्म से ही आठ अंगों से टेढी थी, इसलिए उनका नाम अष्टावक्र रखा गया। क्योंकि अष्टावक्र बालपन से ही विकलांग थे व सभी लोग उन्हें कुरूप मानते थे, इसलिए उनका हमेशा से ही उपहास किया जाता था।
एक दिन मिथिला नरेश, राजा जनक ने अपनी सभा में विशाल शास्त्रार्थ का आयोजन किया। सभी प्रकांड पंडितों सहित शास्त्रों में निपुण, अष्टावक्र के पिता को भी आमंत्रित किया गया। जब बहुत विलंब हो गया और उनकी कोई खबर न आई, तब अष्टावक्र अपने पिता को देखने सभा में जा पहुंचे।
अष्टावक्र को देखते ही, सभा में उपस्थित सभी सभाजन हँसने लगे और उनके आठ अंगों से टेढ़े देह का उपहास करने लगे। यह देखकर अष्टावक्र भी ज़ोर से हँसने लगे। उनकी यह विचित्र प्रतिक्रिया देख, राजा जनक ने उनसे उनकी हंसी का कारण पूछा, तब अष्टावक्र ने कहा, 'आप इस सभा को विद्वानों की सभा कहते हैं, परंतु यहाँ तो सभी अज्ञानी घमंड में चूर हैं, मुझे तो ये चर्म के व्यापारी जान पड़ते हैं। ये सभी मेरी हड्डी, रक्त, मांस एवं चमड़ी देखकर मेरी योग्यता आंक रहे हैं। ये मुझपर नहीं, प्रभु की रचना पर हंस रहे हैं, उसका उपहास कर रहे हैं। जिस प्रकार, नदी के टेढ़े होने से जल टेढ़ा नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के टेढ़े होने से, आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।'
यह सब सुनकर राजा जनक अष्टावक्र के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु मान, उनके मार्गदर्शन में ही तत्वज्ञान प्राप्त किया। अष्टावक्र और विदेहराज के संवाद 'अष्टावक्र की गीता' के नाम से संकलित हैं जो आत्मा और ब्रह्म के दर्शन में मूर्धन्य स्थान रखते हैं।
एक दिन स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास एक पुराने योगी पहुंचे। वह उम्र और अनुभव दोनों में ही उनसे बड़े थे और उन्हें पता था कि स्वामी रामकृष्ण आध्यात्म से संबंध रखते हैं। योगी ने रामकृष्ण को उसके साथ गंगा के जल पर चलने को कहा जिससे यह प्रमाणित हो जाए की वास्तविकता में ही उनके जीवन में आध्यात्म है।
यह सुनने के बाद रामकृष्ण ने उससे कुछ पल विश्राम करने को कहा और कुछ क्षण बाद, बड़ी ही विनम्रता से पूछा कि उसको पानी पर चलने की कला सीखने में कितने वर्ष का समय लगा, जिस पर योगी ने बताया: अट्ठारह (१८) वर्ष । अब रामकृष्ण हँसने लगे और योगी से कहा कि वे तो आज तक पानी पर नहीं चले और यदि उन्हें गंगा पार भी करनी होती है तो वे दो पैसे में यह काम आसानी से कर लेते हैं क्योंकि दो पैसे का काम अट्ठारह वर्ष में सीखना मूर्खता है, आध्यात्म नहीं।
आध्यात्म तो जीवन से जुड़े कई रहस्यों से पर्दा उठा देता है और जिंदगी के कई भेद हमारे समक्ष खोल देता है। मनुष्य विभिन्न कलाओं का विकास कर यह समझता है कि उसने आध्यात्म को समझ लिया है परन्तु पानी पर चलना आध्यात्म नहीं है। आध्यात्म तो जीवन से जुड़े रहस्यों व स्वयं की आत्मा का अध्ययन करने का मार्ग सुनिश्चित करता है।
अनंत काल से आदिवासियों में एक बात प्रचलित है, कि किसी भी व्यक्ति की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर, उसको किसी भी रोग से मुक्त और युक्त किया जा सकता है और तो और उसकी मृत्यु भी उसे भेजी जा सकती है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक और लेखक रुडोल्फ फ्रैंक ने अपने जीवन के तीस वर्ष इसी बात का अनुसंधान करने में लगाए कि इस बात में कितनी सच्चाई है। अत्यंत संदेह से पूर्ण चित्त लेकर, रुडोल्फ इस बात की पुष्टि करने हेतु कई बर्षों तक अमेज़न के आदिवासियों के बीच रहे। इन वर्षों में उन्होंने यह घटना कई बार घटित होते हुए देखी। चाहे कोई व्यक्ति हज़ारों मील की दूरी पर ही क्यों न हो, उसे विशेष बीमारियों से संक्रमित किया जा सकता था और उस तक उसकी मृत्यु भी भेजी जा सकती थी। वर्षों के अध्ययन और अनुसंधान के पश्चात यह बात सिद्ध हो गयी कि ऐसी घटनाएं घटती हैं।
इस घटना की प्रक्रिया बताते हुए रुडोल्फ अपनी किताब में कई महत्वपूर्ण बातों का वर्णन करते हैं। सबसे प्रथम तो यह कि उस मिट्टी की मूर्ति का व्यक्ति की सूरत से पूर्ण तरह मेल खाना आवश्यक नहीं है। जो व्यक्ति उस प्रतिमा को आकार दे रहा है, उसका मूर्ति में उस व्यक्ति का चेहरा प्रतिष्ठित कर पाना आवश्यक है। इसका अर्थ यह है कि उस व्यक्ति को मन में पूरा स्मरण करके उसको मिट्टी की प्रतिमा पर आरोपित करने से, वह उसका प्रतीक बन, सक्रिय हो जायेगी।
उसपर व्यक्ति का चेहरा प्रतिष्ठित करने की भी एक अलग व्यवस्था है। मनुष्य के दोनों नेत्रों के बीच, एक तीसरे नेत्र का स्थान है, जो स्वयं में आज्ञा की शक्ति रखता है जिसके कारण उसे संचरण का केंद्र भी माना जाता है। यदि मनुष्य अपनी आँखों के मध्य भाग में अपना ध्यान केंद्रित करे, तो उसके साधारण शब्द भी असाधारण शक्ति लेकर गतिमान हो जाते हैं। यदि किसी व्यक्ति की प्रतिमा को मन में रखकर और उसकी छोटी प्रतिमा को ध्यान में लेकर, आज्ञा के चक्र से, गीली मिट्टी से बनाई हुई मूर्ति पर फेर दिया जाए, तो वह गीली मिट्टी का लौन्दा साधारण मिट्टी का लौन्दा नहीं रह जाता बल्कि दी गयी आज्ञा से संक्रामित और आविष्ट हो जाता है।
रुडोल्फ ने अपने पूरे जीवन के अध्ययन के बाद यह लिखा है कि जो बात सुनने में अविश्वसनीय प्रतीत होती है, उसके प्रयोग देखकर वे चकित रह गए। वृक्षों की प्रतिमा बना आदिवासियों ने उनके सामने वृक्षों को तत्काल सूखने पर विवश कर दिया। जो वृक्ष कुछ क्षण पूर्व हरा-भरा था, उसके पत्ते अनायास मूर्झा गए और वह वृक्ष मृत्यु की कगार पर पहुँच गया। उसे प्रतिदिन पानी दिया गया, सींचा गया और बाहरी रूप से वृक्ष को कोई हानि नहीं पहुँचने दी, परंतु एक महीने के भीतर ही वह वृक्ष सूख कर नष्ट हो गया।
जो वृक्ष पर हो सकता है, वह मनुष्य पर भी किया जा सकता है। मूर्ति पूजा भी इसी प्रक्रिया का एक विराट आयाम में प्रयोग है। यही कारण है कि भारत में मूर्ति पूजा की प्रथा का प्रारंभ हुआ। यदि इस प्रक्रिया से किसी व्यक्ति को बीमार किया जा सकता है, उसकी मृत्यु लाई जा सकती है, तो जो व्यक्ति मृत्यु के पार जा चुके हैं, उनसे संबंध स्थापित करना भी संभव है। इस प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य, मिट्टी की प्रतिमा बनाकर, ईश्वर के साथ एक आलौकिक संबंध स्थापित कर सकते हैं और इस संसार में जो विराट व्याप्त है उस तक पहुँच सकते है।
अतः मूर्ति पूजा का आधार ही इस बात पर विद्यमान है, कि मनुष्य के मस्तिष्क एवं परमात्मा ( ब्रह्मांडीय चेतना ) के बीच एक सेतु का निर्माण किया जा सके जिससे मनुष्य साकार के माध्यम से अनादि, अनंत एवं निराकार परमब्रह्म से जुड़ सके।